प्रकृति की मधुशाला
आज सुबह मैं छत पर योग कर रहा था। इतनी मीठी और शीतल हवा बह रही थी कि सहज ही लम्बी, गहरी साँस लेने लगा। सामने पेड़ों के पीछे से झाँकता अरुणिम सूर्य! आसपास पक्षियों का कलरव और अठखेलियाँ! झूमते पेड़! यूँ लगा मानो पूरी प्रकृति इक मधुशाला है और मैं इसके मधुरस का पान कर रहा हूँ।

प्रकृति की ये मदिरा केवल उन लोगों के लिए है जो सुबह जल्दी उठते हैं। ये आम मदिरा नहीं जो कहीं से, कोई भी ख़रीद ले। वैसे आम मदिरा से इसकी क्या तुलना? आम मदिरा तो बेहोश करती है; प्राकृतिक मदिरा होश देती है। आम मदिरा अपने आपसे भागने का, अपने को भुलाने का, अपनी चिंताओं से बचने का एक बहाना मात्र है; प्राकृतिक मदिरा स्वयं के समीप आने का, स्वयं से जुड़ने का, स्वयं की ऊर्जा जगाने का साधन है।

मेरे रस में थोड़ी और मिठास तब घुल गई जब कुछ बच्चों को साइकिलिंग का मज़ा लेते देखा। और एक छोटी बच्ची को अपनी दादी के साथ सुबह सैर करते देखा।

क्यों न हम सभी रोज़ सुबह जल्दी उठकर प्रकृति के इस रस का आंनद लें और अपने बच्चों को भी इससे परिचित कराएँ! क्यों न हम भी कभी अपने बच्चों के साथ साइकिलिंग करें! यदि हम ऐसा कर पाए, तो एक सुंदर और स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकेगा।

ऐसे समाज में हत्या, बलात्कार, घृणा, भ्रष्टाचार, ईर्ष्या की कोई जगह नहीं होगी, क्योंकि ये सारे कुकर्म दुखी लोग ही करते हैं। जिस व्यक्ति को अपने अंदर का आनंद पता हो, वो कोई अपराध नहीं करता।